Saturday, May 18, 2024
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लेख/विचार

“रहे ना रहे हम….. महका करेंगे”

लता जी का जाना तो एक युग का अवसान है। वह लता जी जो सुरों का संज्ञान थी, भारत की पहचान थी। आप तो अपने मधुर स्वर से हर गीत में स्वयं ही अमर हो गई। आप तो एक ऐसी सूरो की मलिका थी जिनके तराने युगो-युगो तक लोगों को गुनगुनाने और झूमने पर विवश कर देंगे। यह कैसा निष्ठुर बसंत था जो जीवन में बहार का स्वर देने वाली अनूठी कोकिला को ही मौन देकर चला गया। आपकी असीम सुर साधना की क्षमता तो आवाज के जादू से शब्दो के लौह कण को कुन्दन में सृजित और परिवर्तित करने का अनोखा जादू रखती थी। आपके बोल तो अनायास ही अधरों पर नाचने लगते थे। नश्वर शरीर का अंत तो निश्चित है, पर आपके स्वर से सजा स्वर्णिम युग सदैव जीवंत रहेगा। आपका स्वर तो पूरी दुनिया के संगीत प्रेमियों को मंत्रमुग्ध करने की क्षमता से परिपूरित था। आपकी स्वर लहरें तो दशको तक प्रशंसकों के दिल में हिलौरे मारती रहेगी।

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परंपरागत भारतीय संगीत की परंपराओं को संरक्षित और सुरक्षित करना ज़रूरी

संगीत में मानवीय काया को निरोगी रखने की अपार संभावनाएं – भारतीय परंपरागत संगीत को विलुप्त से बचाने की ज़रूरत – एड किशन भावनानी
वैश्विक स्तरपर सदियों पुरानी भारतीय परंपरागत संगीत की चाहत और प्रतिष्ठा आज भी अनेक देशों में कायम है और उसे देखने, उसका अध्ययन करने, अनेक सैलानी भारत यात्रा करते हैं। हमने कई बार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टीवी चैनलों पर देखे होंगे कि विदेशी सैलानी अनेक प्रदेशों में वहां के पारंपरिक संगीत पर नाचते झूमते हैं और बहुत खुश, संतुष्ट नज़र आते हैं। यह देखकर हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है और हम गौरवविंत होते हैं कि हम भारत देश के नागरिक हैं!!!

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मुसीबतों का मारा मिडल क्लास

“शानों शौकत वाली मिल जाए उसे ज़िंदगी कहते है, दौड़धूप की मारी उम्र कटे उसे नासाज़गी कहते है”
पर हर परिस्थिति का सामना करते जो ज़िंदादिली से जिए उसे मिडल क्लास परिवार कहते है। मिडल क्लास यानी मध्यम वर्गीय परिवार जो ताउम्र मुसीबतों का मारा ही रहता है, ज़िंदगी जिसे छोड़ देती है दो पाटन के बीच पिसने के लिए। न वो अमीर की श्रेणी में आता है न गरीब कहलाता है, न वो आरक्षण का हकदार होता है न बड़ी लाॅन लेने की हैसियत रखता है।

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सोशल मीडिया का मंच बिलकुल भी सुरक्षित नहीं है

फेसबुक, इंस्टाग्राम पर कुछ भी पोस्ट करने से पहले सौ बार सोचिए की जो आप पोस्ट करने जा रहे हो ये मुद्दा किसी विवाद को जन्म देने वाला तो नहीं। क्यूँकि इंसान की मानसिकता इतनी हद तक निम्न स्तर की और विकृत होती जा रही है की छोटी-छोटी बात पर गुस्सा, दंगल और खून खराबा मानों सहज सी बात हो गई है। सोशल मीडिया उसका बहुत बड़ा ज़िम्मेदार है। लोगों को लगता है ड़ाल दो कुछ भी, कौन सा फोन से निकलकर कोई हमारा कुछ बिगाड़ने वाला है। खासकर धर्मांधता ने लोगों के दिमाग को सड़ा हुआ बना दिया है। एक दूसरे के धर्म पर किचड़ उछालते पोस्ट पर ही जंग छिड़ जाती है।

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स्पष्टवादिता और सत्यनिष्ठा की मिसाल थे गांधी जी

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की ईमानदारी, स्पष्टवादिता, सत्यनिष्ठा और शिष्टता के कई किस्से प्रचलित हैं, जिनसे उनके महान् व्यक्तित्व की स्पष्ट झलक मिलती है। एक बार महात्मा गांधी श्रीमती सरोजिनी नायडू के साथ बैडमिंटन खेल रहे थे। श्रीमती नायडू के दाएं हाथ में चोट लगी थी। यह देखकर गांधी जी ने भी अपने बाएं हाथ में ही रैकेट पकड़ लिया। श्रीमती नायडू का ध्यान जब इस ओर गया तो वह खिलखिलाकर हंस पड़ी और कहने लगी, ‘‘आपको तो यह भी नहीं पता कि रैकेट कौनसे हाथ में पकड़ा जाता है?’’
इस पर बापू ने जवाब दिया, ‘‘आपने भी तो अपने दाएं हाथ में चोट लगी होने के कारण बाएं हाथ में रैकेट पकड़ा हुआ है और मैं किसी की भी मजबूरी का फायदा नहीं उठाना चाहता। अगर आप मजबूरी के कारण दाएं हाथ से रैकेट पकड़कर नहीं खेल सकती तो मैं अपने दाएं हाथ का फायदा क्यों उठाऊं?’’
गांधी जी एक बार चम्पारण से बतिया रेलगाड़ी में सफर कर रहे थे। गाड़ी में अधिक भीड़ न होने के कारण वे तीसरे दर्जे के डिब्बे में जाकर एक बर्थ पर लेट गए। अगले स्टेशन पर जब रेलगाड़ी रूकी तो एक किसान उस डिब्बे में चढ़ा। उसने बर्थ पर लेटे हुए गांधी जी को अपशब्द बोलते हुए कहा, ‘‘यहां से खड़े हो जाओ। बर्थ पर ऐसे पसरे पड़े हो, जैसे यह रेलगाड़ी तुम्हारे बाप की है।’’
गांधी जी किसान को बिना कुछ कहे चुपचाप उठकर एक ओर बैठ गए। तभी किसान बर्थ पर आराम से बैठते हुए मस्ती में गाने लगा, ‘‘धन-धन गांधी जी महाराज! दुःखियों का दुःख मिटाने वाले गांधी जी …।’’
रोचक बात यह थी कि वह किसान कहीं और नहीं बल्कि बतिया में गांधी जी के दर्शनों के लिए ही जा रहा था लेकिन इससे पहले उसने गांधी जी को कभी देखा नहीं था, इसलिए रेलगाड़ी में उन्हें पहचान न सका। बतिया पहुंचने पर स्टेशन पर जब हजारों लोगों की भीड़ ने गांधी जी का स्वागत किया, तब उस किसान को वास्तविकता का अहसास हुआ और शर्म के मारे उसकी नजरें झुक गई। वह गांधी जी के चरणों में गिरकर उनसे क्षमायाचना करने लगा। गांधी जी ने उसे उठाकर प्रेमपूर्वक अपने गले से लगा लिया।

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“यूँहीं नहीं मिली आज़ादी”

बेशक गांधीवाद, चरखा और सत्याग्रह का भारत को आज़ादी दिलाने में अहम् योगदान रहा। पर आज स्वतंत्र भारत की जिस भूमि पर हम आज़ादी की साँसें ले रहे उस आज़ादी को पाने के लिए कई स्वतंत्र सेनानीओं ने अपना बलिदान दिया है। उनमें ना केवल पुरुषों का योगदान रहा बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन में भारतीय महिलाओं ने भी कंधे से कंधा मिलाकर खुमारी से अपनी वीरता, साहस और क्षमता का परिचय दिया। देश के एक-एक नागरीक ने ख़ुमारी से हर आंदोलन और हर गतिविधि में हिस्सा लेकर देशप्रेम का परचम लहराया तब जाकर भारत ब्रिटिस शासकों के हाथों से आज़ाद हुआ।
महिलाओं की भूमिका हर जंग में अहम रही। शास्त्रों में कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता अर्थात जहाँ नारी का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता है। इसलिए कहा जाता है कि जिस समाज में नारी बढ़ चढ़कर विभिन्न क्षेत्र से सम्बन्धित कार्यों में हिस्सा लेती है वहां प्रगति की संभावनाएं बढ़ जाती है।
इतिहास गवाह है ब्रिटिश शासकों को धूल चटवाकर लड़ते हुए जान दे दी उनमें प्रमुख नाम है झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और रानी चेनम्मा जैसी विरांगनाओं का। अंग्रेजों से लड़ते हुए जिन्होंने अपनी जान दे दी। मात्र तेइस साल की आयु में लक्ष्मी बाई ने ब्रिटिश सेना के सामने मोर्चा लिया और लड़ते-लड़ते रणमैदान में वीरगति प्राप्त की पर अंग्रेजों को झांसी की भूमि पर कब्ज़ा नहीं करने दिया।
तो सरोजिनी नायडू ने एक कुशल सेनापति की भाँति अपनी प्रतिभा का परिचय हर क्षेत्र में दिया सत्याग्रह हो या संगठन की बात उन्होंने अनेक राष्ट्रीय आंदोलनों का नेतृत्व किया और जेल भी गयीं। संकटों से न घबराते हुए वे एक धीर वीरांगना की भाँति गाँव-गाँव घूमकर ये देश-प्रेम की भावना जगाती रहीं। तो दूसरी ओर लक्ष्मी सहगल जी जैसी देशप्रेमी महिलाओं ने आज़ादी के बाद अपना तन-मन देश को समर्पित किया।

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सरकारी नौकरी नहीं, बल्कि एक सेवा कर रहे हैं

सरकारी योजनाओं के ईमानदार क्रियान्वयन पर, कर्तव्य पथ एक इतिहास रचता है
वैश्विक स्तरपर भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और जनसंख्या में द्वितीय क्रमांक पर है। भारत में लोकतंत्र के चार स्तंभ माने जाते हैं न्यायपालिका, कार्यपालिका, विधायिका और चौथा मीडिया। हर स्तंभ अपने अपने कार्यक्षेत्र में सुचारू रूप से कार्य कर अपने अपने स्तरपर नए सकारात्मक आयाम प्राप्त करने की कोशिश करते हैं।
साथियों इन चार स्तंभों में से मेरा मानना है कि कार्यपालिका के ऊपर विधाययिका द्वारा लिए गए फैसलों, कानूनों, न्यायपालिका के दिशानिर्देशों, आदेशों और मीडिया द्वारा झूठ से हटाए गए पर्दों और सच्चाई के मुद्दों पर अमल करने की ज़वाबदारी और कर्तव्य कार्यपालिका पर है। याने हम सीधे शब्दों में कहें तो, माने गए चार स्तंभों में से तीनों स्तंभों के निर्णय, सुझाव, दिशानिर्देशों इत्यादि को क्रियान्वयन करना कार्यपालिका की ही जवाबदारी और कर्तव्य है।
उसके बाद कार्यपालिका स्वयं द्वारा सुशासन, लोकहित, दूरगामी इंस्ट्रक्चर इत्यादि अनेक जनहित कार्यक्रमों, सरकारी योजनाओं को क्रियान्वयन की ज़वाबदारी कर्तव्य भी कार्यपालिका को करना होता है जिसका निर्णय शासन द्वारा रणनीतिक रोडमैप बनवाकर लिया जाता है तथा उसे प्रशासन द्वारा क्रियान्वित करने की जवाबदारी संभाली जाती है ऐसी प्रक्रिया की जानकारी जहां तक मुझे है।
साथियों बात अगर हम इन सरकारी योजनाओं, निर्णयों, दिशानिर्देशों इत्यादि को क्रियान्वयन करने की करें तो हमने आम बोलचाल में सुने होंगे कि सरकारी नौकर, सरकारी नौकरी, जनता के सेवक इत्यादि अनेक शब्दों का प्रयोग छोटे से चपरासी, पटवारी से लेकर मंत्रालयों के मुख्य सचिववों तक के पदों के लिए प्रयुक्त होते हैं परंतु मेरा मानना है कि इसके लिए सरकारी सेवक एक बहूसूचक, बहुमूल्य शब्द है इससे बोध होता है की सेवा करना है और इस सेवा में बहुमूल्य आध्यात्मिक बोध समाया होता है!! जिसका अंतिम स्तरपर अदृश्य सेवाफल ईश्वर अल्लाह से प्राप्त होने की कामना शामिल है, ऐसी मेरी भावना है!

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मेरी हर कमी को है तू लाज़मी

रूह की शिद्दत से जुड़े दो व्यक्ति के बीच एक ऐसे सेतु का निर्माण हुआ होता है कि अगर एक सिरा टूट जाता है तो दूसरा मुरझा जाता है। एक व्यक्ति के चले जाने से दुनिया खाली हो जाती है, वक्त थम जाता है और खुशियाँ रूठ जाती है। भले इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता फिर भी तुम क्यूँ चले गए? ये सवाल ज़हन में बार-बार उठता है। एक टीश, एक कसक और तड़प रह जाती है। एकाकीपन वो सज़ा है जो भुगत रहा होता है वही जानता है।
दुनिया की कोई शै लुभाती नहीं एक इंसान की कमी कोई खजाना भरपाई नहीं कर सकता।
नहीं मुझे मोह किसी अनमोल खजाने का
दिल मेरा तलबगार है तेरी चाहत के तराने का
हर इंसान के जीवन में कोई एक व्यक्ति ऐसी होती है जो हमारी खुशी का कारण और जीने की वजह होती है। जिनकी उपस्थिति हमारे जीवन में इन्द्रधनुषी रंग भरकर होठों को हंसीं देती है। जिसका हमारे आसपास होना हमें संबल देता है। उसका हाथ थामें हर सफ़र आसान लगता है। हर मुश्किल सरल लगती है। उनके कहे तीन शब्द ‘मैं हूँ ना’ हर चिंता से निजात दिलाता है। हौसलों में जान ड़ालता है। उसकी आभा और ओज ज़िंदगी की तम भरी राहों में रोशनाई भरते हमें मंज़िल तक पहुँचाती है।

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लघुकथाः मुँह बोला रिश्ता

रामनिवास बहुत ही भावुक और दूसरों पर अत्यधिक अपनत्व लुटाने वाला और विश्वास करने वाला व्यक्ति था। नियति की विडम्बना ने उसकी बहन को बचपन में ही छीन लिया। रामनिवास की पत्नी हरिश्री अत्यधिक समझदार थी। वह अकसर रामनिवास को रिश्तों की गंभीरता को समझने पर बल देती थी, पर रामनिवास सारी दुनिया को निःस्वार्थ प्रेम लुटाने वाला ही समझता था। राखी वाला दिन था, रामनिवास बहन की यादों में डूबा था। अचानक उसके परममित्र के परिवार का आगमन हुआ और संयोगवश राखी-डोरे का संबंध स्थापित हुआ, पर हरिश्री जीवन की गहराइयों से भली-भाँति परिचित थी। वह जानती थी मुँह बोले रिश्तों की सच्चाई।
इस नए रिश्ते में पूरा समर्पण रामनिवास का ही था। वह मामा बनने पर बच्चों पर अपनत्व और प्रेम लुटाया करता था। जब भी बहन की माँ रोगग्रस्त हुई तबभी रामनिवास ने पूरे समय दायित्व का निर्वहन किया। पारिवारिक शादियों में भी रामनिवास ने अपना भरपूर सहयोग प्रदान किया। रामनिवास निश्छल व्यक्तित्व का धनी था अतः उसने इस मुँह बोले रिश्ते को निभाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। जरूरत के अनुसार बच्चों की देखरेख, बाहर से सामान लाना और जरूरत के हर समय वह खड़ा रहता था। रामनिवास पूर्ण तन्मयता से सब कुछ करता था। अबकी बार बारी थी रामनिवास के मुँह बोले रिश्ते की परीक्षा की, इस बार रामनिवास के बच्चों के जीवन पर संकट के काले बादल छा गए। अब रामनिवास को भी इसी सहयोग की जरूरत थी, पर उसके मुँह बोले रिश्ते ने दिखावे का मुखौटा धारण किया हुआ था, जिसमें ऊपरी दिखावा और अंदर भरपूर मनोरंजन समाहित था। उन्हें तो रामनिवास के दुःख से कोई सरोकार नहीं था। हरिश्री ने रामनिवास का इस ओर ध्यान आकृष्ट भी किया, पर रामनिवास तो आँख मूंदकर बैठा था।

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कुपोषित होते जा रहे शिक्षण संस्थान

जी हाँ ,मैं किसी सरकारी शिक्षण संस्थान की नहीं बल्कि छोटे-मोटे निजी विद्यालयों की बात कर रही हूँ l गत लगातार दो वर्षों से कोरोना अपना रंग दिखा रहा है, नए-नए तरीकों से परेशान कर रहा है l जब शुरुआत कोरोना नमक वैश्विक महामारी की लहर तो उसके साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में में भी जबरदस्त बदलाव देखने को मिला l जहां बच्चों को मोबाइल से दूर रहने की हिदायत दी जाती थी और शिक्षकों को कक्षा में मोबाइल फोन का इस्तेमाल वर्जित था ,वही ऑनलाइन क्लास नामक तत्व संजीवनी बूटी बनकर सामने आया। ऑनलाइन कक्षा चलना विकल्प तो बहुत अच्छा था । हम ऐसे कक्षाओं के परिचालन की कभी परिकल्पना किया करते थे । और चाह कर भी हम इस तरह के प्रयोग में वर्षों लगा देते शायद ,लेकिन समय और परिस्थितियों ने सब कुछ तुरंत ही कर दिया । शिक्षा जगत में ऑनलाइन क्लास के माध्यम से एक बदलाव भी आया बच्चों और शिक्षकों के पास स्मार्ट फ़ोन होना अनिवार्य हो गया ।

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