सरकारी विद्यालयों की बात करें तो प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा का स्तर दिनों दिन गिरता गया और नतीजा यह हुआ कि प्राईवेट स्कूलों अथवा निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई। सरकारें अपने स्तर से तमाम योजनायें चलाती रही लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर नहीं सुधर पाया। हां, सरकारी स्कूलों की पहिचान मिड-डे-मील और बस्ता बांटने तक ही सिमट गई। ऐसे में नई शिक्षा नीति लागू करने के साथ ही केंद्र सरकार और विशेष रूप से शिक्षा मंत्रालय को यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि राज्य सरकारों के साथ शैक्षिक संस्थानों के प्रतिनिधियों व शिक्षकों की भी नई शिक्षा नीति को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संबोधन में इसका उल्लेख करते हुए यह रेखांकित किया कि इस मामले में वह राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देने के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन उन्हें इसका भी आभास होना चाहिए कि उनकी प्रतिबद्धता का मतलब क्या है अगर नौकरशाही अपने स्तर से काम करेगी और चुने हुए जनप्रतिनिधि सबकुछ देखते हुए नजरअन्दाज करते रहेंगे! अगर अतीत पर नजर डालें तो मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल चल रहा है ऐसे में भाजपा सांसदों ने सरकारी स्कूलों पर क्या अपनी नजर नहीं डाली ? अगर नहीं डाली तो क्यों ? क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि उनके क्षेत्र के बच्चे अच्छी शिक्षा पायें?
देश के प्रधानमंत्री के इस कथन से शायद ही कोई असहमत हो कि देश का शैक्षिक ढांचा बिगत वर्षों से जिस पुराने ढर्रे पर चल रहा था उसके कारण नई सोंच और ऊर्जा को बढ़ावा नहीं मिल पाया है, विशेषकर सरकारी स्कूलों में। बात तो सही है लेकिन प्रधानमन्त्री जी को यह भी ध्यान रखना चाहिये कि बिगत 6 वर्षों में भी शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता ही आया है अब ऐसे में नई शिक्षानीति से कितना बदलाव आयेगा, यह तो भविष्य की गर्त में है।
हां, यह अच्छा कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री जी ने इस बात को महसूस किया कि शिक्षा की नीतियों में बदलाव जरूरी है। लेकिन कहीं ऐसा ना हो कि इतना बड़ा सुधार सिर्फ कागजों पर होता रह जाये! इस पर बल देने की जरूरत है कि इसे जमीन पर कैसे उतारा जाए?
सम्पादकीय
अलगाववाद का खत्मा पूरी तरह जरूरी है
देश की आजादी के बाद से ही जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा था और वहां के निवासियों के लिये कई कानून अलग थे। सरकारें आई और चली गईं लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामलों पर हस्तक्षेप करने से कतराती गईं लेकिन भाजपा ने सत्ता में आते ही इस ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया था और अन्याय व अलगाववाद के पोषक अनुच्छेद यानि कि 370 के साथ ही 35-ए को यहां से हटा दिया। इसकी अवधि भी एक वर्ष हो गई। अब ऐसे में आवश्यक यह है कि इसका अवलोकन किया जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर से क्या खोया, क्या पाया ? यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या इस क्षेत्र में और कदम उठाए जाने की आवश्यकता है?
यह सिर्फ जम्मू-कश्मीर पर ही लागू नहीं हो रहा है बल्कि इसके साथ ही केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए राज्य लद्दाख पर लागू हो रहा है। इससे कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि बीते एक वर्ष में इन दोनों केंद्र शासित राज्य जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में बहुत कुछ बदला है, लेकिन वहां के हालातों में अभी वो सुधार नहीं आ पाया जिसकी कल्पना की गई थी और वहां से अनुच्छेद 370 के साथ ही 35-ए जिसके लिये हटाई गई थी।
यह क्षेत्र आतंकी हमलों से आज भी अछूता नहीं है और कई नेताओं की नजरबंदी कायम रहने से यह जाहिर होता है कि अब इन्तजार करना पड़ेगा!
कोरोना संक्रमण का प्रसार रोकना जरूरी
कोरोना (कोविड-19) महामारी ने चीन, अमेरिका, ब्राजील, इटली, भारत सहित अन्य कई देशों खूब कहर बरपाया है और लाखों जिन्दगियों को निगल लिया है। कोई इलाज अथवा वैक्सीन ना होने के कारण ज्यादातर हर देश ने कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिये लाॅकडाउन का सहारा लिया और इसका असर काफी हद तक देखने को मिला। वहीं भारत की बात करें तो वर्तमान में जिस तरह से कोराना संक्रमितों की संख्या सामने आ रही है उससे तो यही साबित हो रहा है कि कोरोना से बचाव हेतु लाॅकडाउन की पहल तभी कारगर साबित होगी जब संदिग्ध कोरोना मरीजों के टेस्ट के साथ उन्हें कोरन्टाइन करने का काम भी सही ढंग से किया जाये।
वहीं ताजा रिपोर्टों की मानें तो जिन राज्यों में सबकुछ सामान्य सा लग रहा था वहां भी हालात चिन्ताजनक बनते जा रहे हैं। नतीजन केंद्र सरकार की ओर से बिहार, ओडिशा, बंगाल और असम को कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए नए सिरे से निर्देश जारी करने पड़े। ऐसा भी कह सकते हैं कि कई राज्यों ने कोरोना से बचाव हेतु समय रहते सही तैयारी नहीं की है। इसीलिये उन्हें अब दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। जबकि इन राज्यों के पास समय था और उन्हें दूसरे राज्यों से सबक लेते हुए कोरोना निपटने हेतु तैयारी अच्छी कर लेनी चाहिये थी। लेकिन अब जब कोरोना ने अपनी दस्तक दे दी है तो ऐसे में केंद्र सरकार के निर्देशों का सही तरह पालन करने के साथ ही लोगों को शारीरिक दूरी के प्रति सावधान रहना चाहिये। इतना ही नहीं साफ सफाई के साथ ही घर से बाहर निकलते समय अथवा सार्वजनिक स्थानों पर मास्क के प्रयोग में लापरवाही नहीं करनी चाहिये।
इसमें कतई दो राय नहीं कि कोरोना के खिलाफ जंग जीतना बिना जन सहयोग के असंभव है, लेकिन राज्यों की भी अपनी जिम्मेदारी बनती है कि केन्द्र सरकार का साथ देते हुए उसके कदम से कदम मिलाकर चलें और राज्य के स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय हों।
मजदूर के नसीब में ठोकर
उप्र, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों में एक के बाद एक घटित भयावह सड़क हादसों में मजबूर मजदूरों की मौत ने कामगारों की दयनीय दशा को सबके सामने लाकर रख दिया है। राष्ट्रीय राजमार्गों, रेल की पटरियों के किनारों पर दिख रहे नजारों यह तो स्पष्ट कर दिया कि कामगारों की घर वापसी के लिए सरकारों ने अगर उचित प्रबंध किए होते तो शायद इन भीषण हादसों से कामगारों व मजबूरों की जान जाने से बच सकती थी। लेकिन सरकारी तन्त्र की लापरवाही, सरकारों की अनदेखी व संवेदनहीनता के चलते कामगारों की जान चली गई।
सोंचनीय और विचारणीय तथ्य यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों को तभी जागरूक हो जाना चाहिए था जब पहला हादसा घटित हुआ था लेकिन, लेकिन ऐसा नहीं हुआ था और सरकारों द्वारा घड़ियाली आंसू बहाकर व महज औपचारिकता भरी संवेदना जताकर अपने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई थी। नतीजा यह हुआ कि कामगारों के पैदल या साइकिल से घर जाने का सिलसिला थमने के वजाय और तेज हो गया। इसके बाद एक के बाद एक कई हादसे हो गये।
लाॅकडाउन की तपस्या भंग
कोरोना वायरस (कोविड-19) ने पूरी दुनियां को दहशत में जीने पर मजबूर कर दिया है। हजारों लोग मौत के मुंह में समा गये। लाखों की संख्या में लोग जिन्दगी और मौत से लुका छिपी के दौर से गुजर रहे हैं। कई देश लाॅकडाउन के दौर से गुजर रहे हैं, भारत भी उनमें से एक है। लाॅक डाउन की घोषणा होते ही देश वासियों ने अपने अपने स्तर से लाॅक डाउन का पालन करने में सहयोग किया है। लेकिन राजस्व के लालच ने सब्र का बांध तोड़ने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। कोरोना के संक्रमण काल में शराब बन्दी का आदेश हटाने को कदापि उचित नहीं ठहरा सकते। यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं किया गया क्यों कि शराब की दुकानें खुलते ही उनके आगे जमा हुई भारी भीड़ ने शारीरिक दूरी बनाए रखने की ऐसी उपेक्षा की कि लाॅकडाउन की तपस्या भंग हो गई। यह कहना कदापि अनुचित नहीं कि सरकार का यह फैसला बिना सोंच-विचारे लिया गया। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों व उनके स्थानीय प्रशासन को इसका पूरी तरह से ध्यान रहना चाहिए था कि शराब बिक्री की अनुमति मिलने पर उनकी दुकानों पर अफरातफरी का माहौल उत्पन्न हो सकता है। और ज्यादातर स्थानों पर ऐसा ही देखा गया। शराब के शौकीन कहें या लती लोगों ने जल्दवाजी दिखाते हुए शराब खरीदने की ललक में संयम और अनुशासन को ठेंगा दिखाते हुए लाॅक डाउन की व्यवस्था को पानी में बहा दिया।
हालांकि ऐसे में सवाल उठता है कि जब बीते 40 दिन से शराब के बगैर काम चल रहा था तो फिर कुछ दिन और रुक जाते या धैर्य रखते हुए संयम का परिचय देते शराब प्रेमी?
यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि जब अनेक वस्तुओं की बिक्री अथवा उत्पादन पर रोक जारी है तो फिर शराब की बिक्री को लेकर उदारता दिखाने की इतनी जल्दवाजी अथवा जरूरत क्या थी सरकार को?
हालांकि शराब की दुकानों पर दिखे नजारों के चलते तमाम जगहों पर शराब की दुकाने बन्द करनी पड़ी अथवा बिक्री पर रोक लगानी पड़ी। शराब की दुकानों पर सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ा, शायद इसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं था, क्योंकि लोग सर्तकता का जरा भी ध्यान देना नहीं चाहते थे। कोरोना से बचाव के लिये आवश्यक बताई गई शारीरिक दूरी को लेकर बरती जाने वाली सजगता को ताक पर रख चुके थे।
आसान नहीं होगी कामगारों की वापसी
कोरोना वायरस (कोविड-19) का कहर जहां कई देशों में अपना असर दिखा रहा है और हजारों लोगों की जान जाने का कारक बन चुका है तो वहीं भारत भी अछूता नहीं दिख रहा है और इसका कहर यहां भी देखने को मिल रहा है। सरकारें भी अपने अपने स्तर से जनहानि रोकने के लिये हर सम्भव प्रयास करतीं दिख रहीं है लेकिन कोरोना से देश का उद्योग जगत भी प्रभावित हो चुका है और कारखानों में काम करने वाले कामगारों के पलायन की तस्वीरें इसका खासा उदाहरण हैं। सरकारों द्वारा लोकलुभावन की गई घोषणों के वावजूद महानगरों से कामगारों का पलायन नहीं रूका और देखने को मिल रहा है कि लाखों की तादात में मजदूर वर्ग अथवा कामगार अपने अपने घर को चले गये। मजदूरों, कामगारों की वापसी के दौरान आवागमन के समुचित संशाधन ना मिलने के बावजूद कामागार अपनी हिम्मत नहीं हारे और अपने घरों की सैकड़ों मीलों की दूरी को तय करने में पैदल ही जाते दिखे और इसका कारण कोरोना से बचाव हेतु किया गया लाॅकडाउन कहा जा सकता है।
Read More »शिक्षा का गिरता स्तर, जिम्मेदार कौन ?
बिना शिक्षित समाज के किसी भी देश को विकसित बनाना असम्भव है अर्थात बिना समुचित शिक्षा की व्यवस्था के बिना विकास बेमानी व कल्पना मात्र है। भारत में आजादी के बाद से ही शिक्षा का स्तर दिनों दिन गिरता चला आया है। सरकारी पाठशालाओं के हालात तो किसी से छिपे नहीं। शिक्षा के दयनीय हालातों के चलते ही इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत सरकार ने सन 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। इस अधिकार के तहत 6 से 14 वर्ष तक के बालक व बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया। इसका उद्देश्य यह था कि बिना किसी भेदभाव के बालक बालिकाओं को समान रूप से शिक्षा की उपलब्ध हो और गुणवत्तापरक शिक्षा उन्हें मिल सके। लेकिन कटु किन्तु सत्य यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार होता नहीं दिखाई दे रहा है। तमाम योजनायें चलाई जा रही हैं लेकिन वो ढाक के तीन पात वाली कहावत को चरित्रार्थ कर रहीं हैं। शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है जो सबसे चिंताजनक विषय है।
Read More »शिक्षा के स्तर में सुधार जरूरी
किसी भी देश के आर्थिक विकास को ही नहीं बल्कि समाज और राजनीति दोनों को वहाँ की शिक्षा का स्तर प्रभावित करता है शिक्षा के महत्व को लेकर कभी भी और कहीं भी कोई मतभेद नहीं रखा जाना चाहिये क्योंकि निजी तौर पर कोई भी व्यक्ति शिक्षा को रोजगार और व्यक्तिगत आर्थिक तरक्की से जोड़ता है। आज के दौर में किसी भी व्यक्ति की जीविका अथवा रोजगार काफी हद तक उसकी शिक्षा के स्तर पर ही निर्भर है। इसके अलावा राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो शिक्षा का आर्थिक तौर के अलावा व्यक्ति के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी अपना एक महत्व है। लेकिन इस समय सरकार द्वारा संचालित प्राथमिक पाठशालाओं अथवा जूनियर हाई स्कूलों में शिक्षा का स्तर बहुत ही दयनीय है और यह स्तर ज्यादातर स्कूलों में देखा जा सकता है। इन स्कूल में जाकर कुछ सीखकर ये कहा जाये कि यह बच्चा भविष्य में एक अच्छी कमाई करेगा ऐसी उम्मीद ना के बराबर हो सकती है। हां इतना तो कह सकते हैं कि मिड-डे-मील योजना, बैग, पुस्तकें व ड्रेस आदि के वितरण होने के बाद सरकारी विद्यालयों में काफी बच्चे आने तो लगे हैं, पर वो कितनी पढ़ाई कर रहे हैं यह किसी से छुपा नहीं है। यह कटु किन्तु सत्य है कि सरकारी प्राथमिक व जूनियर पाठशालाओं में पंजीकरण दर और शिक्षा के स्तर में सुधार के बीच एक बड़ा सा अंतर दिखता है।
Read More »पीएम साहब आ रहे हैं…
शहर की वीआईपी रोड के दोनों तरफ खड़े हरे वृक्षों की टहनियों को काट-छांट दिया गया। रात्रिकालीन प्रकाश के लिये रोड के दोनों ओर लगी लाइटों को आननफानन में ठीक करने में रात-दिन एक कर दिया गया। दीवारों पर मन मोहक पेंटिंग बना दी गईं। सड़क को अवरोधक मुक्त करने का फरमान भी जारी हो गया। रोड को गड्ढामुक्त करके चमाचम कर दिया गया। सड़क के आस-पास जहां कूड़े-कचरे का अम्बार दिखता था उसे छिपाने की जुगाड़ ढूंड़ ली गई। वीआईपी रोड पर पड़ने वाले सभी चैराहों के यातायात संकेतों को भी ठीक कर दिया गया। रोड के दोनों तरफ जमे अतिक्रमण को साफ कर दिया गया।
मिल गया न्याय
हैदराबाद रेप काण्ड के चारो आरोपियों को पुलिस द्वारा मुठभेड़ में मार गिराये जाने की चहुंओर प्रशंसा की जा रही है लेकिन, देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मुठभेड़ पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहे हैं। इन बुद्धिजीवियों को यह भी स्पष्ट करना चाहिये कि वह देश के साथ हैं या अपराधियों के साथ हैं। उनका यह तर्क किसी स्तर तक सही हो सकता है कि आरोपियों को कानूनी प्रक्रिया के अन्तर्गत सजा मिलनी चाहिये थी लेकिन, उन्हें यह भी समझना चाहिये कि निर्भया काण्ड सहित अब तक के कितने बलात्कारियों को न्यायिक प्रक्रिया के तहत सजा दी जा सकी है? निर्भया काण्ड को हुए 7 वर्ष हो चुके हैं और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस काण्ड के दोषियों को फांसी की सजा भी सुनायी जा चुकी है। इसके बावजूद आखिर वह जीवित क्यों हैं? क्योंकि एक दोषी ने दिल्ली हाईकोर्ट से अपनी सजा पर स्टे ले रखा है तथा दूसरे की दया याचिका राष्ट्रपति के यहां लम्बित है।
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