Friday, April 19, 2024
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सम्पादकीय

लाॅकडाउन की तपस्या भंग

कोरोना वायरस (कोविड-19) ने पूरी दुनियां को दहशत में जीने पर मजबूर कर दिया है। हजारों लोग मौत के मुंह में समा गये। लाखों की संख्या में लोग जिन्दगी और मौत से लुका छिपी के दौर से गुजर रहे हैं। कई देश लाॅकडाउन के दौर से गुजर रहे हैं, भारत भी उनमें से एक है। लाॅक डाउन की घोषणा होते ही देश वासियों ने अपने अपने स्तर से लाॅक डाउन का पालन करने में सहयोग किया है। लेकिन राजस्व के लालच ने सब्र का बांध तोड़ने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। कोरोना के संक्रमण काल में शराब बन्दी का आदेश हटाने को कदापि उचित नहीं ठहरा सकते। यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं किया गया क्यों कि शराब की दुकानें खुलते ही उनके आगे जमा हुई भारी भीड़ ने शारीरिक दूरी बनाए रखने की ऐसी उपेक्षा की कि लाॅकडाउन की तपस्या भंग हो गई। यह कहना कदापि अनुचित नहीं कि सरकार का यह फैसला बिना सोंच-विचारे लिया गया। केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों व उनके स्थानीय प्रशासन को इसका पूरी तरह से ध्यान रहना चाहिए था कि शराब बिक्री की अनुमति मिलने पर उनकी दुकानों पर अफरातफरी का माहौल उत्पन्न हो सकता है। और ज्यादातर स्थानों पर ऐसा ही देखा गया। शराब के शौकीन कहें या लती लोगों ने जल्दवाजी दिखाते हुए शराब खरीदने की ललक में संयम और अनुशासन को ठेंगा दिखाते हुए लाॅक डाउन की व्यवस्था को पानी में बहा दिया।
हालांकि ऐसे में सवाल उठता है कि जब बीते 40 दिन से शराब के बगैर काम चल रहा था तो फिर कुछ दिन और रुक जाते या धैर्य रखते हुए संयम का परिचय देते शराब प्रेमी?
यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि जब अनेक वस्तुओं की बिक्री अथवा उत्पादन पर रोक जारी है तो फिर शराब की बिक्री को लेकर उदारता दिखाने की इतनी जल्दवाजी अथवा जरूरत क्या थी सरकार को?
हालांकि शराब की दुकानों पर दिखे नजारों के चलते तमाम जगहों पर शराब की दुकाने बन्द करनी पड़ी अथवा बिक्री पर रोक लगानी पड़ी। शराब की दुकानों पर सुरक्षा बलों को तैनात करना पड़ा, शायद इसके अलावा और कोई उपाय भी नहीं था, क्योंकि लोग सर्तकता का जरा भी ध्यान देना नहीं चाहते थे। कोरोना से बचाव के लिये आवश्यक बताई गई शारीरिक दूरी को लेकर बरती जाने वाली सजगता को ताक पर रख चुके थे।

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आसान नहीं होगी कामगारों की वापसी

कोरोना वायरस (कोविड-19) का कहर जहां कई देशों में अपना असर दिखा रहा है और हजारों लोगों की जान जाने का कारक बन चुका है तो वहीं भारत भी अछूता नहीं दिख रहा है और इसका कहर यहां भी देखने को मिल रहा है। सरकारें भी अपने अपने स्तर से जनहानि रोकने के लिये हर सम्भव प्रयास करतीं दिख रहीं है लेकिन कोरोना से देश का उद्योग जगत भी प्रभावित हो चुका है और कारखानों में काम करने वाले कामगारों के पलायन की तस्वीरें इसका खासा उदाहरण हैं। सरकारों द्वारा लोकलुभावन की गई घोषणों के वावजूद महानगरों से कामगारों का पलायन नहीं रूका और देखने को मिल रहा है कि लाखों की तादात में मजदूर वर्ग अथवा कामगार अपने अपने घर को चले गये। मजदूरों, कामगारों की वापसी के दौरान आवागमन के समुचित संशाधन ना मिलने के बावजूद कामागार अपनी हिम्मत नहीं हारे और अपने घरों की सैकड़ों मीलों की दूरी को तय करने में पैदल ही जाते दिखे और इसका कारण कोरोना से बचाव हेतु किया गया लाॅकडाउन कहा जा सकता है।

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शिक्षा का गिरता स्तर, जिम्मेदार कौन ?

बिना शिक्षित समाज के किसी भी देश को विकसित बनाना असम्भव है अर्थात बिना समुचित शिक्षा की व्यवस्था के बिना विकास बेमानी व कल्पना मात्र है। भारत में आजादी के बाद से ही शिक्षा का स्तर दिनों दिन गिरता चला आया है। सरकारी पाठशालाओं के हालात तो किसी से छिपे नहीं। शिक्षा के दयनीय हालातों के चलते ही इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत सरकार ने सन 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। इस अधिकार के तहत 6 से 14 वर्ष तक के बालक व बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया। इसका उद्देश्य यह था कि बिना किसी भेदभाव के बालक बालिकाओं को समान रूप से शिक्षा की उपलब्ध हो और गुणवत्तापरक शिक्षा उन्हें मिल सके। लेकिन कटु किन्तु सत्य यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार होता नहीं दिखाई दे रहा है। तमाम योजनायें चलाई जा रही हैं लेकिन वो ढाक के तीन पात वाली कहावत को चरित्रार्थ कर रहीं हैं। शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है जो सबसे चिंताजनक विषय है।

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शिक्षा के स्तर में सुधार जरूरी

किसी भी देश के आर्थिक विकास को ही नहीं बल्कि समाज और राजनीति दोनों को वहाँ की शिक्षा का स्तर प्रभावित करता है शिक्षा के महत्व को लेकर कभी भी और कहीं भी कोई मतभेद नहीं रखा जाना चाहिये क्योंकि निजी तौर पर कोई भी व्यक्ति शिक्षा को रोजगार और व्यक्तिगत आर्थिक तरक्की से जोड़ता है। आज के दौर में किसी भी व्यक्ति की जीविका अथवा रोजगार काफी हद तक उसकी शिक्षा के स्तर पर ही निर्भर है। इसके अलावा राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो शिक्षा का आर्थिक तौर के अलावा व्यक्ति के सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी अपना एक महत्व है। लेकिन इस समय सरकार द्वारा संचालित प्राथमिक पाठशालाओं अथवा जूनियर हाई स्कूलों में शिक्षा का स्तर बहुत ही दयनीय है और यह स्तर ज्यादातर स्कूलों में देखा जा सकता है। इन स्कूल में जाकर कुछ सीखकर ये कहा जाये कि यह बच्चा भविष्य में एक अच्छी कमाई करेगा ऐसी उम्मीद ना के बराबर हो सकती है। हां इतना तो कह सकते हैं कि मिड-डे-मील योजना, बैग, पुस्तकें व ड्रेस आदि के वितरण होने के बाद सरकारी विद्यालयों में काफी बच्चे आने तो लगे हैं, पर वो कितनी पढ़ाई कर रहे हैं यह किसी से छुपा नहीं है। यह कटु किन्तु सत्य है कि सरकारी प्राथमिक व जूनियर पाठशालाओं में पंजीकरण दर और शिक्षा के स्तर में सुधार के बीच एक बड़ा सा अंतर दिखता है।

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पीएम साहब आ रहे हैं…

शहर की वीआईपी रोड के दोनों तरफ खड़े हरे वृक्षों की टहनियों को काट-छांट दिया गया। रात्रिकालीन प्रकाश के लिये रोड के दोनों ओर लगी लाइटों को आननफानन में ठीक करने में रात-दिन एक कर दिया गया। दीवारों पर मन मोहक पेंटिंग बना दी गईं। सड़क को अवरोधक मुक्त करने का फरमान भी जारी हो गया। रोड को गड्ढामुक्त करके चमाचम कर दिया गया। सड़क के आस-पास जहां कूड़े-कचरे का अम्बार दिखता था उसे छिपाने की जुगाड़ ढूंड़ ली गई। वीआईपी रोड पर पड़ने वाले सभी चैराहों के यातायात संकेतों को भी ठीक कर दिया गया। रोड के दोनों तरफ जमे अतिक्रमण को साफ कर दिया गया।

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मिल गया न्याय

हैदराबाद रेप काण्ड के चारो आरोपियों को पुलिस द्वारा मुठभेड़ में मार गिराये जाने की चहुंओर प्रशंसा की जा रही है लेकिन, देश के कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी मुठभेड़ पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगा रहे हैं। इन बुद्धिजीवियों को यह भी स्पष्ट करना चाहिये कि वह देश के साथ हैं या अपराधियों के साथ हैं। उनका यह तर्क किसी स्तर तक सही हो सकता है कि आरोपियों को कानूनी प्रक्रिया के अन्तर्गत सजा मिलनी चाहिये थी लेकिन, उन्हें यह भी समझना चाहिये कि निर्भया काण्ड सहित अब तक के कितने बलात्कारियों को न्यायिक प्रक्रिया के तहत सजा दी जा सकी है? निर्भया काण्ड को हुए 7 वर्ष हो चुके हैं और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस काण्ड के दोषियों को फांसी की सजा भी सुनायी जा चुकी है। इसके बावजूद आखिर वह जीवित क्यों हैं? क्योंकि एक दोषी ने दिल्ली हाईकोर्ट से अपनी सजा पर स्टे ले रखा है तथा दूसरे की दया याचिका राष्ट्रपति के यहां लम्बित है।

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अलगाववाद पर प्रहार

कई दिनों से जम्मू कश्मीर में पनपी असमंजश की स्थिति को आखिरकार विराम लग ही गया और मोदी सरकार अपना एक वादा पूरा करते हुए जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा दिया। इस विस्मयकारी फैसले से सबको चैंकाने वाली मोदी सरकार ने जिस साहस एवं दृढ़ता से यह निर्णय लेने की बात कही है उससे उसने जनता से किये वायदे को निभाया है। हालांकि जम्मू-कश्मीर में पिछले कुछ दिनों से जारी हलचल से यह तो अन्दाजा लगाया जा रहा था कि कुछ होने वाला है, लेकिन 370 को लेकर किसी भी तरह की चर्चा नहीं दिखी थी और इसका किसी को भनक तक नहीं लगा था। लेकिन सोमवार को गृह मंत्री अमित शाह ने विवादास्पद अनुच्छेद 370 व 35 ए पर बिल पेश करते हुए एक साथ चार प्रस्ताव लाकर सबको हैरान कर दिया। इससे श्रेष्ठ भारत-एक भारत का सपना साकार होता दिखने लगा है। साथ ही अलगाववाद पर प्रहार भी हुआ है।
ऐसा माना जाता है कि अनुच्छेद 370 अलगाववाद को पोषित करने के साथ ही जम्मू-कश्मीर के विकास में बाधक भी बना था। इससे जम्मू-कश्मीर के विकास के रास्ते खुल गये हैं। जबकि इसी के चलते जम्मू-कश्मीर में कुछ परिवारों को ही फायदा मिलता रहा है और इस फैसले से वही लोग बौखला गये हैं जो पिछले सात दशक से 370 की आड़ में अपनी राजनीतिक रोटियों को सेंक कर अपना भला कर रहे थे।

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बकलोली भरा रहा चुनावी माहौल

लोकसभा का चुनाव चाक चौबंद शान्ति व्यवस्था के बीच हिंसा और विवादित बयानों के वातावरण के चलते अशान्ति पूर्वक सम्पन्न हो गया। कुछ भी हो लेकिन यह चुनाव हमारे देश के नेताओं की बदजुबानी के लिए भी याद किया जाएगा। इस बार के चुनावी माहौल में नेताओं ने अपनी सभाओं में जैसी विवादित बयानबाजी की है शायद वैसी कभी पिछले चुनावों में नहीं देखने को मिली थी और न भविष्य में देखने को मिलेगी। जन सभाओं में जनता के देश के बड़बोले व बकलोल नेताओं के मुंह से ऐसे विवादित बयान निकल रहे थे जिनकों सुनकर देश का लोकतन्त्र विश्व पटल पर शर्मिन्दा हुआ है। यह बयानवाजी कोई अनजाने में नहीं गई थी विचार करें तो यही नतीजा निकलेगा कि ये विवादित बयान सोच-समझकर दिए जा रहे थे।

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मातृ दिवस

माँ का स्थान सबसे श्रेष्ठ माना जाता है और माँ शब्द में ही संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। शब्दकोश में अनेकों शब्द है लेकिन माँ के शब्द में जो आत्मीयता व मधुरता होती है वोे अन्य किसी शब्द में नहीं होती है। माँ के रिश्ते के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। माँ न केवल अपनी संतानों को अच्छे से सहेजती है बल्कि आवश्यकता के अनुसार उनका सहारा बन जाती है। माँ का सम्मान जितना किया जाये उतना कम है फिर भी मातृ दिवस को सभी माताओं का सम्मान करने के लिए मनाया जाना शुरू है। ऐसा कहा जाता है कि एक संतान का पालन-पोषण करने में माताओं द्वारा सहन की जाने वालीं कठिनाइयों के लिये आभार व्यक्त करने के लिये यह दिन मनाया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि माँ का आभार किसी भी तरह से व्यक्त नहीं किया जा सकता है।
‘माँ!’ वह अलौकिक व अनूठा शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही हर व्यक्ति का रोम-रोम पुलकित व प्रफुल्लित हो उठता है। ‘माँ’ वो अमोघ मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘माँ’ की के आंचल की महिमा को किन्हीं भी शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, सिर्फ उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।
हर संतान को उसकी मां से ही संस्कार मिलता है और संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी मिलती है। हमारे देश में मां को शक्ति का रूप माना गया है और सनातन वेदों में माँ को सर्वप्रथम पूज्यनीय कहा गया है। माँ हमारी भावनाओं के साथ कितनी खूबी से जुड़ी होती है, ये समझाने के लिए कोई शब्दाबली नहीं हैं।
गौर करने वाला तथ्य है कि ठोकर लगने पर या मुसीबत की घड़ी में माँ ही याद आती है। वो माँ ही होती है जो हमें तब से जानती है जब हम अजन्मे होते हैं। बचपन में हमारा रातों का जागना, जिस वजह से कई रातों तक माँ सो भी नहीं पाती थी। वह गीले बिस्तर में सोती थी और हमें सूखे में सुलाती थी जितना माँ ने हमारे लिए किया है उतना कोई दूसरा कर ही नहीं सकता।
मां के अंदर प्रेम की पराकाष्ठा है या यूं कहें कि मां ही प्रेम की पराकाष्ठा है। प्रेम की यह चरमता केवल माताओं में ही नहीं, वरन् सभी मादा जीवों में देखने को मिलती है। कितनी दयनीय बात है कि हमारे देश ने स्त्री की शक्ति के रूप में अवधारणा दी, फिर भी माँ को देवी का सम्मान दिलाना वर्तमान युग की सबसे बड़ी आवश्यकता में से एक है। सभ्यता के विकास क्रम में इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोंच-विचार में अभूतपूर्व बदलाव हुए है लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। पुराने युग में भी माँ ही संतानों का पालन-पोषण करती थी और आज भी कर रही है।
माँ को धरती पर विधाता का प्रतिनिधि कहा जा सकता है और माँ विधाता से कम भी नहीं है। कण-कण में व्याप्त परमात्मा के रूप में माँ हर किसी को हर जगह नजर आती है।
माँ अपनी संतान की पहली किलकारी से लेकर आखिरी सांस तक उसका साथ नहीं छोड़ती है। माँ ही अपनी संतानों के भविष्य का निर्माण करती हैं और इसीलिए उसको बच्चे का प्रथम गुरु कहा जाता है। उसकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। वह कभी लोरियों में, कभी झिड़कियों में, कभी प्यार से तो कभी दुलार से बालमन में भावी जीवन के संस्कार को पनपने की आशा रखती है। लेकिन, आज कन्या भ्रूणों की हत्या का जो सिलसिला बढ़ रहा है, वह नारी-शोषण का आधुनिक वैज्ञानिक रूप है। हालांकि इसके लिए पितृवर्ग के साथ साथ मातृत्व वर्ग भी जिम्मेदार है। परिस्थितियां कुछ भी हों लेकिन माँ अपने अजन्मे, अबोल शिशु को अपनी सहमति से समाप्त करा देती है, क्यों? इसलिए कि वह एक लड़की है! ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या उसकी ममता का स्रोत सूख गया है? कन्याभ्रूणों की बढ़ती हुई हत्यायें एक ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी का कारण बन रही है तो दूसरी ओर मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है।

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स्वास्थ्य परिदृश्य में सराहनीय पहल

आम आदमी का ध्यान रखते हुए सरकारों ने अनेकों जनकल्याणकारी योजनाएं संचालित कीं हैं और की जा रहीं हैं लेकिन मगर ज्यादातर जनप्रतिनिधियों व सरकारी मशीनरी की नीति और नियत साफ ना होने के कारण ज्यादातर योजनाएं ढकोसला व ढाक के तीन पात वाली कहावात को सही साबित करतीं दिखीं हैं। नतीजन इन जनकल्याणकारी योजनाओं ने आम आदमी के बजाय योजनाकारों को ही लाभ पहुंचाया है। अभी स्वास्थ्य के क्षेत्र की ही चर्चा की जाए तो देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। इलाज महंगा होने के कारण गरीब आदमी की पहुंच से बहुत दूर है। अनेकों लोग संसाधनों के अभाव में बिना इलाज के ही दम तोड़ जाते हैं। गंभीर बीमारियों के उपचार के लिए आम आदमी अपना घर-बार, जमीन, जेवर आदि तक बेच डालता है। आम आदमी निजी अस्पतालों में इलाज करवाने में असमर्थ दिखता फिर भी अपना सबकुछ लुटाने पर तुला रहता है। सरकारी अस्पतालों में भरोसा नहीं दिखता और देश की विशाल व विविधता भरी जनसंख्या को सस्ता और बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती बनी रही है।
इस गंभीर समस्या की ओर पहली बार नरेंद्र मोदी सरकार ने ध्यान दिया। मोदी सरकार ने गरीबों को मुफ्त इलाज सुनिश्चित करने के लिए ‘आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना’ के रूप में एक क्रांतिकारी पहल की है। बिदित हो कि यह योजना विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य बीमा योजना है। इस योजना को केंद्रीय कैबिनेट ने 21 मार्च, 2018 को स्वीकृति दी थी और छह माह के भीतर 23 सितंबर, 2018 को यह पूरे देश में लागू कर दी गई। ऐसा कहा गया है कि इस योजना से देश के निर्धन वर्ग के 10 करोड़ से अधिक परिवारों अर्थात् पचास करोड़ की आबादी को प्रतिवर्ष पांच लाख तक का इलाज सरकारी व निजी अस्पतालों में मुफ्त मिलेगा। कहने का मतलब यह है कि इस योजना के तहत हमारे देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या कैशलेस उपचार का लाभ उठाएगी।
इस योजना में 1350 से अधिक बीमारियों को शामिल किया गया है। रोगियों की सुविधा के लिए अस्पतालों में आरोग्य मित्र तैनात किए जा रहे हैं। योजना के अंतर्गत कवर लाभार्थी को पैनल में शामिल किए गए देश के किसी भी सरकारी / निजी अस्पताल में इलाज की अनुमति होगी। आंकड़ों की मानें तो इस योजना के लागू होने के मात्र 100 दिन के भीतर देश भर में 6.85 मरीजों का मुफ्त इलाज किया गया अर्थात प्रभावी क्रियान्वयन अगर किया जायेगा तो इससे देश के स्वास्थ्य परिदृश्य में गुणात्मक परिवर्तन होगा। सामाजिक असंतुलन को समाप्त कर सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो सकेगा।

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