“जिन हाथों ने इस देश की इमारतें खड़ी कीं, उन्हीं हाथों को आज रोटी, छत और पहचान के लिए जूझना पड़ रहा है। दिहाड़ीदार मजदूर केवल श्रम नहीं देते, वे इस देश की नींव हैं — लेकिन सबसे उपेक्षित भी। विकास की रफ्तार में उनका पसीना झलकता है, पर उनकी आवाज़ नहीं सुनाई देती। क्या यही है ‘नए भारत’ का सपना — जहाँ श्रमिक अनदेखे, अनसुने और असुरक्षित रहें?”
-डॉ. सत्यवान सौरभ
बदलते दौर में जब तकनीक, पूंजी और ग्लैमर की दुनिया भारत को चमकाता दिखता है, तब देश का एक बड़ा तबका ऐसा है जो उस चमक की नींव बनाता है लेकिन खुद अंधेरे में घुटता रहता है। यही तबका है — दिहाड़ीदार मजदूर। जिनकी बदौलत गगनचुंबी इमारतें खड़ी होती हैं, सड़कों पर रफ्तार दौड़ती है, और शहर सांस लेता है। परन्तु विडंबना यह है कि इन मजदूरों के जीवन में न तो स्थिरता है, न सुरक्षा, न पहचान और न ही संवेदनशीलता।
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